तेरे शैदा भी हुए इश्क़-ए-तमाशा भी हुए तेरे दीवाने तिरे शहर में रुस्वा भी हुए ज़ुल्फ़ तो ज़ुल्फ़ है दुनिया से भी उलझे हैं कि हम इक बगूला भी बने हामिल-ए-सहरा भी हुए तुम तो सुन पाए न आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल भी कुछ हमीं थे कि हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी हुए हम फ़क़ीरान-ए-मुहब्बत के अजब तेवर हैं रज़्म-ए-का'बा भी बने बज़्म-ए-कलीसा भी हुए मिट के हम ख़ाक हुए ख़ाक-ए-रह-ए-कू-ए-बुताँ बन के हम हासिल-ए-सद-बज़्म-ए-तजल्ली भी हुए पेश-ए-ख़ुरशीद-ए-रुख़ाँ ज़र्रा-ए-नाचीज़ रहे और हम रू-कश-ए-हुस्न-ए-रुख़-ए-ज़ेबा भी हुए ज़ीनत-ए-महफ़िल-ए-सद-ज़ोहरा-जबीनाँ हुए हम हाँ मगर ये कि भरी बज़्म में तन्हा भी हुए यूँ तो 'बाक़र' भी रहे ख़ाक-नशीनों में तिरे ये अलग बात तिरे लुत्फ़ से यकता भी हुए