तेरी आँखों की कैफ़िय्यत को मयख़ाने से क्या निस्बत निगह की गर्दिशों को दौर पैमाने से क्या निस्बत ये जीवे हिज्र में वो वस्ल में भी जी नहीं सकता तकल्लुफ़-बर-तरफ़ बुलबुल को परवाने से क्या निस्बत ये वो मोती हैं जिन की सीपियाँ आँखें हैं आशिक़ की मिरे आँसू को मरवारीद के दाने से क्या निस्बत अरे दिल मत तवक़्क़ो दिलबरों से रख तरह्हुम की लहू पीते हैं जो शख़्स उन को ग़म खाने से क्या निस्बत गुल उस का दाग़ है और सर्व उस का आह-ए-मौज़ूँ है 'यक़ीं' से नौहागर को बाग़ में जाने से क्या निस्बत