तेरी अंजुमन में आए तिरे प्यार तक न पहुँचे उसे क्या कहूँ चमन में जो बहार तक न पहुँचे जिसे आ गया है जीना उसे मिल गया गुलिस्ताँ वो बहार गुल को तरसे कि जो ख़ार तक न पहुँचे ऐ मुग़न्नी-ए-ज़माना तिरे नग़्मे ख़ूब लेकिन कभी अज़्मत-ए-सदा-ए-लब-ए-यार तक न पहुँचे वो न पा सके जहाँ में कभी ज़िंदगी का हासिल जो दयार-ए-रंग-ओ-बू में ग़म-ए-यार तक न पहुँचे कोई चल बसा जहाँ से यही कहते कहते आख़िर तुम्हें पास-ए-हुस्न इतना कि पुकार तक न पहुँचे मुझे हर अलम गवारा रह-ए-इश्क़ में है लेकिन कभी ग़म की धूप या-रब मेरे यार तक न पहुँचे ये अजीब मुंसिफ़ी है ये अजीब है ज़माना जो ख़ता करे जहाँ में वही दार तक न पहुँचे मिरे प्यार की हदों में है तमाम शय चमन की वो लहू भी क्या लहू है जो कि ख़ार तक न पहुँचे