तेरी चाहत ही मिरी ज़ीस्त का सरमाया है ख़ुद को खोया है तो अब प्यार तिरा पाया है जिस की ख़ातिर मिरी आँखों के दिए रौशन थे आज आँगन में वो महताब उतर आया है शब-ए-फ़ुर्क़त मेरे आईना-ए-दिल में हमदम तू न आया तो तिरा अक्स उभर आया है इक न इक दिन उसे एहसास-ए-नदामत होगा बे-सबब उस ने मिरे प्यार को ठुकराया है और कुछ भी न दिया झूटी तसल्ली के सिवा मुझ को बच्चों की तरह आप ने बहलाया है दश्त-ए-तन्हाई में क़ैदी की तरह हूँ 'ज़ीनत' मैं जहाँ हूँ वहाँ हमदर्द न हम-साया है