तेरी गली में मैं न चलूँ और सबा चले यूँ ही ख़ुदा जो चाहे तो बंदे की क्या चले किस की ये मौज-ए-हुस्न हुई जल्वा-गर कि यूँ दरिया में जो हबाब थे आँखें छुपा चले हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ नाले जो कुछ बिसात में थे सो सुना चले कह बैठियो न 'दर्द' कि अहल-ए-वफ़ा हूँ मैं उस बेवफ़ा के आगे जो ज़िक्र-ए-वफ़ा चले