तेरी हर इक बात है नश्तर न छेड़ पक्का फोड़ा हूँ मैं ऐ दिलबर न छेड़ मैं अगर रोया तो क्या हाथ आएगा अश्क के क़तरे नहीं गौहर न छेड़ मुँह से कह बैठेंगे जो हो जाएगा हम सड़े सौदाइयों से डर न छेड़ तेरे क़दमों से लगा हूँ रहम कर ठोकरों से ओ बुत-ए-ख़ुद-सर न छेड़ शीशा-ए-दिल चूर हो जाएगा यार है कलाम-ए-सख़्त भी पत्थर न छेड़ ख़ौफ़ कर हम दिल-जलों की आह से छेड़ना हम को नहीं बेहतर न छेड़ भड़ का छत्ता है दिल-ए-सूराख़-दार उस की आहें तैश हैं दिलबर न छेड़ दस्त-ए-नाज़ुक को न पहुँचे कोई रंज झाड़ काँटों का हूँ मैं लाग़र न छेड़ बे-मज़ा बातों से दिल उक्ता गया छेड़े से अब दम है होंटों पर न छेड़ बू-ए-ख़ूँ आती है इस तक़रीर से ज़िक्र ग़ैरों का मिरे मुँह पर न छेड़ वे कि रोएगा हँसी अच्छी नहीं छेड़ में कुछ हो न जाए शर न छेड़ तेरी आहें यार को ना-साज़ हैं साज़ अपना ऐ दिल-ए-मुज़्तर न छेड़ हश्र बरपा कर के लेटा हूँ अभी सोने दे ओ फ़ित्ना-ए-महशर न छेड़ कह वो मश्शाता से अफ़ई है वो ज़ुल्फ़ उस के काटे का नहीं मंतर न छेड़ रोएगा दाढी को ड़ाढें मार कर मोहतसिब रिंदों को मुँह चढ़ कर न छेड़ ख़ुश न होगा कोई सोता चौंक कर 'बहर' तू ग़ाफ़िल को समझा कर न छेड़