तेरी मर्ज़ी के ख़द-ओ-ख़ाल में ढलता हुआ मैं ख़ाक से आब न हो जाऊँ पिघलता हुआ मैं ऐ ख़िज़ाँ मैं तुझे ख़ुश-रंग बना सकता था तुझ से देखा न गया फूलता-फलता हुआ मैं मुझ को माँगी हुई इज़्ज़त नहीं पूरी आती टूट जाऊँ न ये पोशाक बदलता हुआ मैं शोबदा-गर नहीं मेहमान-ए-सफ़-ए-याराँ हूँ ज़हर पीता हुआ और शहद उगलता हुआ मैं यम-ब-यम रूह मचलती हुई मछली की तरह दम-ब-दम वक़्त के हाथों से फिसलता हुआ मैं अब मिरी राख उड़ा या मुझे आँखों से लगा तुझ तलक आ गया हूँ आग पे चलता हुआ मैं कह रही हैं मुझे वो हौसला-अफ़्ज़ा आँखें रूह तक जाऊँ ख़द-ओ-ख़ाल मसलता हुआ मैं हो न हो एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं रक़्स करता हुआ तू आग में जलता हुआ मैं कार-ए-दरवेशी जज़ा-याब है लेकिन 'शाहिद' ख़ुश नहीं ख़ल्वत-ए-ख़ाली से बहलता हुआ मैं