तेरी उम्मीद के अस्बाब नज़र आते नहीं क्यों मुझे कोई हसीं ख़्वाब नज़र आते नहीं इतना भटका हूँ अज़िय्यत के बयाबाँ में कि अब कोई भी लम्हा-ए-नायाब नज़र आते नहीं किस क़दर धुँदले हैं मज़लूम की आहों से फ़लक मेहर-ओ-अंजुम हूँ कि महताब नज़र आते नहीं दस्त-बरदार नहीं रस्म-ए-तअ'ल्लुक़ से मैं फिर भला क्यों मुझे अहबाब नज़र आते नहीं इतनी दूरी है अब उन से कि मुझे ऐ 'शौक़ी' चैन से हैं कि वो बेताब नज़र आते नहीं