तेरी याद का हर मंज़र पस-मंज़र लिखता रहता हूँ दिल को वरक़ बनाता हूँ और शब भर लिखता रहता हूँ भरी दो-पहरी साए बनाता रहता हूँ मैं लफ़्ज़ों से तारीकी में बैठ के माह-ए-मुनव्वर लिखता रहता हूँ ख़्वाब सजाता रहता हूँ मैं बुझी बुझी सी आँखों में जिस से सब महरूम हैं उसे मयस्सर लिखता रहता हूँ छाँव न बाँटे पेड़ तो अपनी आतिश में जल जाता है सिर्फ़ यही इक बात मैं उसे बराबर लिखता रहता हूँ क्या बतलाऊँ 'पाशी' तुम को संग-दिलों की बस्ती में मोती सोचता रहता हूँ मैं गौहर लिखता रहता हूँ