टीस भी टीस न थी ज़ख़्म-ए-जिगर होने तक फूल भी फूल न था ख़ून में तर होने तक वही हक़दार है सूरज की किरन का जिस ने रात की ज़ुल्फ़ सँवारी है सहर होने तक तारे दीवाने नहीं हैं कि जो थामे ही रहें दामन-ए-शब को गरेबान-ए-सहर होने तक पूछिए ख़िज़्र से क्या वो भी रहेंगे ज़िंदा अपनी बातों का हबाबों पे असर होने तक एक आँसू की तरह तुम मुझे रुख़्सत करना रोक लो पलकों पे आग़ाज़-ए-सफ़र होने तक ज़िंदगानी की हक़ीक़त को न समझे 'सौलत' शाइ'री करते रहे उम्र बसर होने तक