था आईने के सामने चेहरा खुला हुआ पानी पे जैसे चाँद का साया पड़ा हुआ घुलती गई बदन में तमाज़त शराब की साग़र निगाह का था लबालब भरा हुआ कल रात थोड़ी देर को पलकें झपक गईं जागा तो जोड़ जोड़ था अपना दुखा हुआ शायद कि सो गए हैं बहुत थक के दिल-जले शहर-ए-जुनूँ तमाम है सूना पड़ा हुआ तहज़ीब ढूँढती है किसी इर्तिक़ा की शक्ल इक़बाल-मंदियों का है सूरज ढला हुआ दिल का वजूद ग़म के अंधेरे में खो गया जैसे किसी मज़ार का कतबा मिटा हुआ काँधे पे ढो रहा हूँ गए वक़्त की सलीब काँटों का ताज सर पे है अपने रखा हुआ ग़र्क़ाब हो न जाए कहीं ज़ब्त का जहाँ फिर आज दर्द-ए-दिल का है दरिया चढ़ा हुआ हालत न अब 'शमीम' की पूछो कि वो ग़रीब होगा किसी गली में तमाशा बना हुआ