था मिरा सब पर बचा कुछ भी नहीं अब मिरा मुझ में रहा कुछ भी नहीं मैं भला क्यूँ कहता गर मिलती ख़ुशी ज़िंदगी ग़म के सिवा कुछ भी नहीं उम्र ख़िदमत को दी और इस के एवज़ एक हस्ती ने लिया कुछ भी नहीं याँ ज़मीर इंसान का मर-खप चुका और कहते हो हुआ कुछ भी नहीं उस के जाने पर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा अब रहा कुछ भी नहीं देखिए मजनूँ सी हालत हो गई और कहते हो सहा कुछ भी नहीं ज़िंदगी जी कर भी इक इंसान को क्यूँ लगे उस ने जिया कुछ भी नहीं आदमी से होगे तुम इंसान कब वक़्त है अब भी गया कुछ भी नहीं ख़ातिर-ए-दुनिया नहीं क्या कुछ किया और कहते हो किया कुछ भी नहीं आह हसरत करते हैं इंसाँ गुनह हश्र की जैसे सज़ा कुछ भी नहीं