था मिरी जस्त पे दरिया बड़ी हैरानी में क्यूँ मिरा अक्स बहुत देर रहा पानी में शायद इस ख़ाक से ख़ुर्शीद कोई उट्ठेगा सो मैं रहता हूँ अनासिर की निगहबानी में पास-ए-आदाब कि याँ देर नहीं लगती है मीर-ए-ज़िंदाँ को बदलते हुए ज़िंदानी में उन की आवाज़ को ख़ातिर में न लाने वालो तुम ने दरियाओं को देखा नहीं तुग़्यानी में वो अजब दौर-ए-मोहब्बत था ज़माना था न वक़्त जैसे दोनों हों किसी आलम-ए-ला-फ़ानी में वो भी तस्वीर सा आग़ाज़-ए-मोहब्बत में रहा मैं भी था आईना-ख़ानों की सी हैरानी में कोई ग़म-ख़्वार नज़र आए तो डर जाता हूँ ये भी आसेब न हो कालब-ए-इंसानी में मेरे होंटों ही पे उड़ती रही आवाज़ की राख कैसे लौ दे ये किसी ख़ित्ता-ए-बर्फ़ानी में तेरी बस्ती को ख़ुदा इश्क़ से आबाद रखे जिस ने आबाद रखा है मुझे वीरानी में