था पा-शिकस्ता आँख मगर देखती तो थी माना वो बे-अमल था मगर आगही तो थी इल्ज़ाम-ए-नारसी से मुबर्रा नहीं थी सीप लेकिन किसी के शौक़ में डूबी हुई तो थी माना वो दश्त-ए-शौक़ में प्यासा ही मर गया इक झील जुस्तुजू की पस-ए-तिश्नगी तो थी एहसास पर मुहीत थे लफ़्ज़ों के दाएरे लफ़्ज़ों के दाएरों में मगर ज़िंदगी तो थी वीराँ था सेहन-ए-बाग़ मगर इस क़दर न था कोने में सूखे पत्तों की महफ़िल जमी तो थी ग़म दूर कर के और भी मफ़्लूज कर दिया तन्हाइयों की रात में दिल-बस्तगी तो थी इस ठंडी रात में तो अँधेरे का राज है सूरज जला रहा था मगर रौशनी तो थी