थक के बैठा था कि मंज़िल नज़र आई मुझ को हौसला देने लगी आबला-पाई मुझ को नज़्र कर देते हैं वो अपनी कमाई मुझ को सर उठाने नहीं देते मिरे भाई मुझ को मैं जहाँ जाता हूँ इस पैकर-ए-नूरी के सिवा और कुछ भी नहीं देता है दिखाई मुझ को इस सितम-पेशा ने क़ुर्बत का न मरहम रक्खा उम्र-भर देता रहा ज़ख़्म-ए-जुदाई मुझ को मुश्किलों में भी मिरे हौसले शादाब रहे रोक सकती ही नहीं वक़्त की खाई मुझ को मैं तो हर साँस को देता रहा जीने का ख़िराज ज़िंदगी फिर भी कभी रास न आई मुझ को उस से बरहम मैं नहीं फिर भी मगर मेरा हरीफ़ उम्र-भर देता रहा अपनी सफ़ाई मुझ को तेरे आने की ख़बर ने मुझे बेचैन रखा सो गया चाँद मगर नींद न आई मुझ को इसी उम्मीद पे मरमर के जिए जाता हूँ वो मिरी क़ैद से कब देगा रिहाई मुझ को मुझ से कुछ सुनने पे आमादा न थी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा उम्र-भर उस ने मगर अपनी सुनाई मुझ को इक नए ग़म से शनासा किया महरूमी ने ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाई मुझ को वो भी शर्मिंदा नज़र आता है 'नूरी' अक्सर नज़र आती ही नहीं जिस में बुराई मुझ को