थके तो ऐसे थके पहली रात तक़रीबन ख़ुदाई कर गए मेहंदी के हाथ तक़रीबन हमारे बस में उसे दे के यूँ लगा जैसे ख़ुदा ने सौंप दी थी काएनात तक़रीबन न कोई झोंक न झपकी ही आँख में आई गुज़र चली थी गुज़रने की रात तक़रीबन हर इक मक़ाम पर अपना ही सामना ख़ुद से हरीफ़ बन गई अपनी ही ज़ात तक़रीबन क़दम क़दम पे ज़माने के काम यूँ आए डुबो गईं हमें अपनी सिफ़ात तक़रीबन कई हज़ार शगूफ़े खिला गई दिल में जो ज़ेर-ए-लब ही कही एक बात तक़रीबन वहीं पे छूट गया अपना साथ भी हम से जहाँ पर आ के छुटा उन का हाथ तक़रीबन