थपकियाँ दे के तिरे ग़म को सुलाया हम ने क्या कहें किस तरह ये बोझ उठाया हम ने शाम पड़ते ही दिया कौन जलाता है यहाँ इस हवेली में न इंसाँ कोई पाया हम ने यूँ तो हर ज़र्रे से पूछा तिरे जाने का सबब राज़ गहरा था किसी को न बताया हम ने वो अजब शख़्स था हर दर पे झुकाता था जबीं चाह कर भी तो नहीं उस को भुलाया हम ने