थे सब के हाथ में ख़ंजर सवाल क्या करता मैं बे-गुनाही का अपनी मलाल क्या करता उसी के एक इशारे पे क़त्ल-ए-आम हुआ अमीर-ए-शहर से मैं अर्ज़-ए-हाल किया करता मैं क़ातिलों की निगाहों से बच के भाग आया कि मेरे साथ थे मेरे अयाल क्या करता धरम के नाम पर इंसानियत की नस्ल-कुशी ज़माना ऐसी भी क़ाएम मिसाल क्या करता जले मकान जले जिस्म जल-बुझा सब कुछ वो इस से बढ़ के हमें पाएमाल क्या करता बटे हुए हैं हमी अपने अपने ख़ानों में हमारा वर्ना कोई ऐसा हाल क्या करता