थी ख़्वाब में भी जल्वा-नुमाई तमाम रात नींद आई भी तो नींद न आई तमाम रात समझा न दिल ने अहद-शिकन तुझ को ता-सहर करता रहा अदू की बुराई तमाम रात तुम से तो ख़ैर वा'दा-ख़िलाफ़ी हुई हुई कम-बख़्त मौत भी तो न आई तमाम रात हिचकी बता रही थी कि उस बेवफ़ा को भी मेरी ही तरह नींद न आई तमाम रात ख़ल्वत-गह-ए-तलब में उजाला न हो सका लौ शम्अ-ए-आरज़ू की बढ़ाई तमाम रात जब हो सका न कोई मुदावा-ए-सोज़-ए-इश्क़ अश्कों ने ग़म की आग बुझाई तमाम रात रह रह के दर्द उठता रहा और चश्म-ए-शौक़ अपने ही आँसुओं में नहाई तमाम रात 'अह्मर' मिला था जिस से हमें दर्द-ए-आशिक़ी देते रहे उसी की दुहाई तमाम रात