थी तो ये एक बात ही पर संग-ए-मील थी खोने का ख़ौफ़ उसे भी हिरासाँ किए रहा बादल भरा-भराया न बरसा तो रंज क्या इस धूप के सफ़र को तो आसाँ किए रहा ये एक शय अलग से रग-ए-जाँ पे बार थी इक लम्हा-ए-फ़िराक़ परेशाँ किए रहा क्या मोड़ था कि ज़ब्त का यारा नहीं रहा हालाँकि उम्र भर दिल-ए-नादाँ किए रहा उस ग़म के क़रज़-दार हैं तीरा-शबों में भी रद्द-ए-वफ़ा का दाग़ फ़रोज़ाँ किए रहा कब आप जानते हैं कि इक दर्द मुस्तक़िल पैमाँ की शाम शाम-ए-ग़रीबाँ किए रहा