ठुकराए हुए दिल की याद आई तो क्या आई फेंका हुआ शीशा था टूटा तो सदा आई दिन ज़ौक़-ए-नवाज़िश से बेगाना सही लेकिन जल्वा है न शो'ला है रात आई तो क्या आई इशरत-गह-ए-बातिल की रौनक़ में कमी क्या है गर बाद-ए-सबा जा कर इक शम्अ' बुझा आई बढ़ती हुई बेताबी कुछ रूठ गई शायद झटके हुए दामन से हाथों को हया आई उठता है क़दम लेकिन रफ़्तार ग़ुनूदा है नींद आ गई रस्तों को मंज़िल की हवा आई है कुछ तो 'नुशूर' एहसाँ इस उम्र-ए-रवाँ का भी इक रोज़ किनारे पर कश्ती तो लगा आई