तिरा फ़िराक़ मुक़द्दर समझ लिया हम ने अब अपने-आप को पत्थर समझ लिया हम ने तुम्हारी याद के पलकों पे अश्क रौशन थे अँधेरी शब को मुनव्वर समझ लिया हम ने ये ख़ुद-फ़रेबी नहीं है तो और क्या कहिए हर एक साए को पैकर समझ लिया हम ने सिपुर्द कर दिए सारे हुक़ूक़ रहज़न को ये किस ज़लील को रहबर समझ लिया हम ने तमाम जिस्म थकावट से चूर चूर हुआ तब इस ज़मीन को बिस्तर समझ लिया हम ने हमारी भूल थी क़द में बहुत जो छोटे थे उन्हें भी क़द के बराबर समझ लिया हम ने वो जिस ने जान अज़िय्यत में डाल दी 'मश्कूर' उसे ही जान से बढ़ कर समझ लिया हम ने