तिरा इश्क़ और हिज्र आलाम दो थे मोहब्बत में इक दिल पे कोहराम दो थे तिरी आस का था ये आलम कि शब भर मैं तन्हा था कमरे में और जाम दो थे उलझ ही गया मैं ख़रीदारी करते दुकानों में हर चीज़ के दाम दो थे बड़े लोग थे मेरे क़िस्से में शामिल मगर मेरे क़िस्से में बदनाम दो थे निकल आए थे वो भी जब चाँद निकला नज़ारे भी 'आरिज़' लब-ए-बाम दो थे