तिरा मक़ाम ज़माने में यूँ निराला था कि तू हमारे लिए हर किसी से आ'ला था किसी ने ख़्वाब से मुझ को जगा दिया वर्ना मैं अपने आप से आगे निकलने वाला था बहुत ग़रीब थे कच्चा मकान छप्पर था कि फिर भी अब्बा ने नाज़ों से हम को पाला था मुझे पता था मैं तेरी हथेलियों में हूँ तिरी ख़ुशी के लिए टॉस फिर उछाला था वो कह रहा था कि महबूब क्यों नहीं उस में फिर उस ने ग़ुस्से में आईना तोड़ डाला था