तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया तुझे मैं क्या समझता था मगर तू क्या निकल आया ज़रा सा काम पड़ते ही मिज़ाज इक ख़ाक-ज़ादे का क़द-ओ-क़ामत मैं गर्दूं से भी कुछ ऊँचा निकल आया ज़र-ए-ख़ुश्बू खनकता रह गया दस्त-ए-गुल-ए-तर में दिल-ए-सादा ख़रीदार-ए-दिल-ए-सादा निकल आया अजब इक मोजज़ा इस दौर में देखा कि पहलू से यद-ए-बैज़ा निकलता था मगर कासा निकल आया कहानी जब भी दोहराई पस-ए-हर-आबला-पाई वही महमिल वही मजनूँ वही सहरा निकल आया 'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन तिरे ग़म से तो सारी उम्र का रिश्ता निकल आया