तिरछी नज़र न हो तरफ़-ए-दिल तो क्या करूँ लैला के ना-पसंद हो महमिल तो क्या करूँ ठहरे न ख़ूँ-बहा सू-ए-क़ातिल तो क्या करूँ हक़ हो जो ख़ुद-बख़ुद मिरा बातिल तो क्या करूँ इक रंग को जहाँ में नहीं कोई मानता हर रंग में रहूँ न मैं शामिल तो या करूँ पिसवाऊँ बे-गुनाह जो दिल को हिना के साथ पुर्सान-ए-हाल हो कोई आदिल तो क्या करूँ परवाना होने की भी इजाज़त नहीं मुझे आलम-फ़रेब है तिरी महफ़िल तो क्या करूँ जाता गुलू-बुरीदा भी उड़ कर गुलों के पास बाज़ू गया है तोड़ के बिस्मिल तो क्या करूँ लैला ये कह के जल्वा दिखाती है क़ैस को उड़ने लगे जो पर्दा-ए-महमिल तो क्या करूँ ख़ुद चाहता हूँ ज़ब्त करूँ दर्द-ए-शौक़ मैं दिल ही मिरा न हो मुतहम्मिल तो क्या करूँ मुँह चूम लूँ कि गिर्द फिरूँ दौड़ दौड़ के ऐ दिल जो हाथ रोक ले क़ातिल तो क्या करूँ दम राह-ए-शौक़-ओ-ज़ौक़ में लेता नहीं कहीं इस पर भी तय न हो जो ये मंज़िल तो क्या करूँ क्यूँ-कर न जब्र दिल पे करूँ अपने इख़्तियार राहत में आ पड़े कोई मुश्किल तो क्या करूँ इक इक से पूछते हैं वो आईना देख कर माशूक़ पाऊँ प्यार के क़ाबिल तो क्या करूँ दे दूँ मैं राह-ए-इश्क़ में जान उस के नाम पर नाचार हूँ न हो कोई साइल तो क्या करूँ टाँके जिगर के ज़ख़्म में क्यूँकर लगाने दूँ गुल तेरे बाग़ का हो मुक़ाबिल तो क्या करूँ आने को मना करते हो अच्छा न आऊँगा ये तो कहो न माने मिरा दिल तो क्या करूँ शायद मुझे जमाल दिखा दे वो ऐ कलीम नज़्ज़ारे का न हूँ मुतहम्मिल तो क्या करूँ मर जाऊँ डूब कर 'शरफ़' उस पार यार है कश्ती न हो कोई लब-ए-साहिल तो क्या करूँ