तिरे आते ही सब दुनिया जवाँ मालूम होती है ख़िज़ाँ रश्क-ए-बहार-ए-जावेदाँ मालूम होती है जुनून-ए-सज्दा-रेज़ी का ये आलम है मआ'ज़-अल्लाह हर इक चौखट तिरा ही आस्ताँ मालूम होती है उसे हर अहल-ए-दिल पहरों मज़े ले ले के सुनता है मिरी बिपता हदीस-ए-दिलबराँ मालूम होती है कटे हैं दिन बलाओं के सहारे जिन असीरों के उन्हें बिजली भी शाख़-ए-आशियाँ मालूम होती है मआल-ए-ज़िंदगानी की हक़ीक़त खुल गई जब से कसक दिल की मता-ए-दो-जहाँ मालूम होती है ख़याल-ए-ऐश की परछाईं से भी दिल लरज़ता है निगाह-ए-हुस्न अब क्यूँ मेहरबाँ मालूम होती है ख़ुदा शायद है मेरे भूलने वाले ब-जुज़ तेरे मुझे तख़्लीक़-ए-आलम राएगाँ मालूम होती है किसी की जुस्तुजू में 'वज्द' उस मंज़िल पे पहुँचा हूँ जहाँ मंज़िल भी गर्द-ए-कारवाँ मालूम होती है