तिरे बग़ैर गुल-ओ-नस्तरन पे क्या गुज़री न पूछ अब के बहार-ए-चमन पे क्या गुज़री मआल-ए-जुरअत-ए-मंसूर कुछ सही लेकिन सवाल ये है कि दार-ओ-रसन पे क्या गुज़री हमीं तो हैं कि जो बर्क़-ओ-शरर से खेले हैं हमीं से पूछ रहे हो चमन पे क्या गुज़री क़फ़स में आज ये कैसे चराग़ रौशन हैं इलाही ख़ैर न जाने चमन पे क्या गुज़री पहुँच के मंज़िल-ए-मक़्सद पे ये भी सोचेंगे कि शब-रवी में दिल-ए-राहज़न पे क्या गुज़री मुझे शिकस्त-ए-नशेमन का ग़म नहीं लेकिन ये सोचता हूँ कि अहल-ए-चमन पे क्या गुज़री तराक़्क़ियाँ तो ज़माने ने कीं बहुत 'अरशद' मगर बताओ तो अर्बाब-ए-फ़न पे क्या गुज़री