तिरे ग़ुरूर मिरे ज़ब्त का सवाल रहा बिखर बिखर के तुझे चाहना कमाल रहा वहीं पे डूबना आराम से हुआ मुमकिन जहाँ पे मौज-ओ-सफ़ीने में ए'तिदाल रहा नहीं कि शाम ढले तुम न लौटते लेकिन तुम्हारी राह में सूरज ही ला-ज़वाल रहा फिर अपना हाथ कलेजे पे रख लिया हम ने फिर उस के पाँव की आहट का एहतिमाल रहा