तिरे गेसुओं के साए में जो एक पल रहा हूँ अभी तक है याद मुझ को अभी तक बहल रहा हूँ मैं वो रिंद-ए-नौ नहीं हूँ जो ज़रा सी पी के बहकूँ अभी और और साक़ी कि मैं फिर सँभल रहा हूँ नहीं ग़म न मिल सकेगी मुझे शैख़ तेरी जन्नत मुझे आरज़ू नहीं है न मैं हाथ मल रहा हूँ जो न मेरे काम आए जो न मेरी बात माने मैं वो दिल बदल रहा हूँ मैं वो दिल बदल रहा हूँ मुझे जादा-ए-तलब में रह-ए-पुर-ख़तर का क्या ग़म कि क़दम जिधर उठे हैं उसी सम्त चल रहा हूँ जो गिरा तो फिर उठूँगा कि जवाँ है अज़्म मेरा मुझे तुम न दो सहारा मैं अगर फिसल रहा हूँ वो दबा के मेरा दामन वो झुका के उन की नज़रें नहीं भूलता ये कहना अभी मैं भी चल रहा हूँ