तिरे करम का मिरे दश्त पे जो साया हुआ मुझे लगा ही नहीं मैं भी हूँ सताया हुआ वो तजरबात की हद से निकल गया आगे वो एक शख़्स कि था मेरा आज़माया हुआ किसी के दस्त-ए-हिनाई का लम्स रौशन था कोई चराग़ न था हाथ में छुपाया हुआ हमारा नाम नहीं है हमारा ज़िक्र नहीं मगर यहाँ से कोई लफ़्ज़ है मिटाया हुआ मैं कैसे उस से अलग हो के देख सकता हूँ किसी का रंग रग-ओ-पै में है समाया हुआ वो आफ़ियत है जहाँ जी रहे हैं बरसों से इसी गली में है पौदा मिरा लगाया हुआ हवा चली तो सफ़र सहल हो गया 'अतहर' सफ़ीना था किसी तूफ़ाँ से डगमगाया हुआ