तिरे क़रीब पहुँचने के ढंग आते थे ये ख़ुद-फ़रेब मगर राह भूल जाते थे हमें अज़ीज़ हैं इन बस्तियों की दीवारें कि जिन के साए भी दीवार बनते जाते थे सतीज़-ए-नक़्श-ए-वफ़ा था तअल्लुक़-ए-याराँ वो ज़ख़मा-ए-रग-ए-जां छेड़ छेड़ जाते थे वो और कौन तिरे क़ुर्ब को तरसता था फ़रेब-ख़ुर्दा ही तेरा फ़रेब खाते थे छुपा के रख दिया फिर आगही के शीशे को इस आईने में तो चेहरे बिगड़ते जाते थे अब एक उम्र से दुख भी कोई नहीं देता वो लोग क्या थे जो आठों पहर रुलाते थे वो लोग क्या हुए जो ऊँघती हुई शब में दर-ए-फ़िराक़ की ज़ंजीर सी हिलाते थे