तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं तो ये बनाओ ये सज धज तुझे रवा ही नहीं मैं तेरी रूह की पत्ती की तरह काँप गया हवा-ए-सुब्ह-ए-सुबुक-गाम को पता ही नहीं किसी उमीद के फूलों भरे शबिस्ताँ से जो आँख मल के उठा हूँ तो वो हुआ ही नहीं फ़राज़-ए-शाम से गिरता रहा फ़साना-ए-शब गदा-ए-गौहर-ए-गुफ़्तार ने सुना ही नहीं चमक रहा है मिरी ज़िंदगी का हर लम्हा मैं क्या करूँ कि मिरी आँख में ज़िया ही नहीं