तिरे सुलूक का ग़म सुब्ह-ओ-शाम क्या करते ज़रा सी बात पे जीना हराम क्या करते कि बे-अदब का भला एहतिराम क्या करते जो नास्तिक था उसे राम-राम क्या करते वो कोई 'मीर' हों 'ग़ालिब' हों या 'अनीस'-ओ-'दबीर' सुख़न-वरी से बड़ा कोई काम क्या करते न नींद आँखों में बाक़ी न इंतिज़ार रहा ये हाल था तो कोई नेक काम क्या करते मिज़ाज में था तकब्बुर तो हरकतों में ग़ुरूर फिर ऐसे शख़्स को हम भी सलाम क्या करते 'रईस' ख़ू-ए-वफ़ा ने हमें रुलाया है फिर इस चलन को भला हम भी आम क्या करते