टूट के पत्थर गिरते रहते हैं दिन रात चटानों से सावन की बरसात की सूरत बरसें तीर कमानों से काले कोसों दूर से आख़िर लाए भी तो फुल-झड़ियाँ हीरे भी तो मिल सके थे सोच की गहरी कानों से इस रंगीं बाज़ार में कोई क्या ख़ुश्बू का ध्यान करे फूलों को माली भी परखे रंगों के पैमानों से रात सहर की खोज में कितने दीप जला कर निकले थे कितने तारे लौट के आए हैं काले वीरानों से तपती धूप में कब से मूरख आस लगाए बैठा है चश्मे फूट के ब निकलेंगे रेतीले मैदानों से बीती ख़ुशियाँ भी अब ध्यान में आने से कतराती हैं रात को लोग गुज़रते हैं हट कर वीरान मकानों से 'आमिर' कैसा दिन गुज़रा है और ये कैसी शाम हुई पहरों ख़ून टपकते देखा सूरज की शिरयानों से