तू आशिक़ों के तईं जब से क़त्ल-ए-नाज़ किया ख़ुशी हैं मिन्नत-ए-जाँ से तो बे-नियाज़ किया कहाँ की अक़्ल किधर के हवास कैसा होश ख़िरद के क़स्र पे तू ने तो तर्क-ए-नाज़ किया हमारे कल्बा-ए-अहज़ाँ में कर क़दम-रंजा निहाल हम को तू ऐ सर्व-ए-सरफ़राज़ किया किया था तेग़ा-ए-अबरू ने मुख़्तसर क़िस्सा प तेरी काकुल-ए-मुश्कीं ने फिर दराज़ किया दिल और लाऊँ कहाँ से लगे जो औरों से जो एक दल था सो वो तो तिरी नियाज़ किया ये तिफ़्ल-ए-अश्क मिरा 'अज़फ़री' है नाशुदनी जवाना-मर्ग मिरी उस ने फ़ाश राज़ किया