तू अगर दिल-नवाज़ हो जाए सोज़ हम-रंग-ए-साज़ हो जाए दिल जो आगाह-ए-राज़ हो जाए हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए लज़्ज़त-ए-ग़म का ये तक़ाज़ा है मुद्दत-ए-ग़म दराज़ हो जाए नग़्मा-ए-इश्क़ छेड़ता हूँ मैं ज़िंदगी नै-नवाज़ हो जाए उस की बिगड़ी बने न क्यूँ ऐ इश्क़ जिस का तू कारसाज़ हो जाए हुस्न मग़रूर है मगर तौबा इश्क़ अगर बे-नियाज़ हो जाए दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर' दर्द ख़ुद चारासाज़ हो जाए