तू अगर शम-ए-मोहब्बत को फ़रोज़ाँ कर दे तीरगी ज़ुल्म की चाक अपना गरेबाँ कर दे दर्द क्या शय है ज़माने पे नुमायाँ कर दे ग़म की हर मौज से हंगामा-ए-तूफ़ाँ कर दे रौशन इस तरह से कर इल्म-ओ-अमल की मशअ'ल कम-निगाही के अंधेरे में चराग़ाँ कर दे देखी जाती नहीं बे-कैफ़ फ़ज़ा-ए-गुलशन उठ नए सर से इसे ख़ुल्द-बदामाँ कर दे तेज़ कर शो'ला-ए-एहसास-ए-अमल को अपने बर्क़-ए-मग़रूर को अंगुश्त-ब-दंदाँ कर दे काँप उठता है जिगर सुन के जफ़ा के क़िस्से ख़त्म अफ़्साना-ए-ख़ूँ-रेज़ी-ए-इंसाँ कर दे सींच कर सुब्ह-ओ-मसा ख़ून-ए-जिगर से अपने तू जो चाहे तो बयाबाँ को गुलिस्ताँ कर दे रह के पाबंद-ए-क़फ़स नाला-ओ-फ़रियाद न कर अज़्म-ए-बेबाक को ग़ारत-गर-ए-ज़िंदाँ कर दे मुज़्महिल हो के न कर बज़्म-ए-तमन्ना बे-कैफ़ नग़्मा-ज़न शौक़ से फिर तार-ए-रग-ए-जाँ कर दे दिल में उस कार-ए-नुमायाँ की तड़प पैदा कर जो हर इक फ़र्द को मिल्लत का निगहबाँ कर दे पैकर-ए-अज़्म-ए-मुसम्मम जो तू हो जाए 'अज़ीज़' सर तिरे क़दमों पे ख़म गर्दिश-ए-दौराँ कर दे