तू है कि चीसताँ की इबारत है तह-ब-तह दिल है कि संग-बस्ता-ए-हैरत है तह-ब-तह जो आँख देखने में ख़राबा दिखाई दे समझो कि इस में कोई अमानत है तह-ब-तह बहर-अना हूँ मेरी तहों में उतर के देख ख़्वाबीदा मुझ में वक़्त की मय्यत है तह-ब-तह वो चश्म-ए-सुर्मा-सा कि जिसे बे-ज़बाँ कहें उस की ख़मोशियों में इशारत है तह-ब-तह फ़ुर्सत कहाँ कि ग़ैर से हम दुश्मनी करें अपना वजूद एक मुसीबत है तह-ब-तह शायद कोई गया हो ज़माने से कामगार अपनी तो ज़ीस्त कान-ए-नदामत है तह-ब-तह