तू मिला था और मेरे हाल पर रोया भी था मेरे सीने में कभी इक इज़्तिराब ऐसा भी था जिस तरह दिल आश्ना था शहर के आदाब से कुछ उसी अंदाज़ से शाइस्ता-ए-सहरा भी था ज़िंदगी तन्हा न थी ऐ इश्क़ तेरी राह में धूप थी सहरा था और इक मेहरबाँ साया भी था इश्क़ के सहरा-नशीनों से मुलाक़ातें भी थीं हुस्न के शहर-ए-निगाराँ में बहुत चर्चा भी था हिज्र के शब-ज़िंदा-दारों से शनासाई भी थी वस्ल की लज़्ज़त में गुम लोगों से इक नाता भी था हर फ़सुर्दा आँख से मानूस थी अपनी नज़र दुख भरे सीनों से हम-रिश्ता मिरा सीना भी था थक भी जाते थे अगर सहरा-नवर्दी से तो क्या मुत्तसिल सहरा के इक वज्द-आफ़रीं दरिया भी था