तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया साहिल को मौज मौज को साहिल बना गया मुँह तकते तकते थक गईं हिरमाँ-नसीबियाँ हर इंक़लाब-ए-शौक़ की हिम्मत बढ़ा गया ज़ौक़-ए-नज़र की जुरअत बेबाक अल-अमाँ रंग-ए-हयात बन के फ़ज़ाओं पे छा गया थर्रा के शम-ए-अंजुमन-ए-ऐश बुझ गई नैरंग-ए-नूर-ए-सुब्ह-ओ-मंज़र दिखा गया इज्ज़-ए-रह-ए-नियाज़ के क़ुर्बान जाइए नक़्श-ए-क़दम को नक़्श-ए-तमन्ना बना गया इतना करम भी जब्र-ए-मोहब्बत का कम नहीं घुट घुट के मरने वालों को जीना सिखा गया शो'ले से क्यूँ लपकते हैं गुलशन से बार बार 'याक़ूब' क्या बहार का मौसम फिर आ गया