तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला आँख ऐ हुस्न-ए-जहाँ-ताब ज़रा हम से मिला वो मसर्रत जिसे कहते हैं नशात-ए-अबदी उस मसर्रत का ख़ज़ाना भी तिरे दम से मिला वहदत-ए-सूरत-ओ-मअ'नी को समझ ऐ वाइज़ हुस्न-ए-यज़्दाँ का तसव्वुर रुख़-ए-आदम से मिला अहल-ए-वहशत से ये तज़ईन-ए-जहाँ क्या होती ये सलीक़ा भी तिरे गेसू-ए-बरहम से मिला हम-नशीं सोज़-ए-ग़म-ए-दिल कहीं महदूद नहीं कभी शोलों से मिला है कभी शबनम से मिला लड़खड़ाना भी है तकमील-ए-सफ़र की तम्हीद हम को मंज़िल का निशाँ लग़्ज़िश-ए-पैहम से मिला वज़्अ-दारी इसे कहिए कि हरम में भी 'रविश' ख़ुद ही बढ़ कर किसी ग़ारत-गर-ए-आलम से मिला