तुझ पे क़ुर्बां हो जो सौ बार कहाँ से लाऊँ अब वो दिल ऐ निगह-ए-यार कहाँ से लाऊँ सर है अपनों ही के अल्ताफ़-ओ-इनायात से ख़म तब-ए-मिन्नत-कश-ए-अग़यार कहाँ से लाऊँ संग-ओ-आहन को भी पिघला दे हरारत जिन की वो सुलगते हुए अफ़्कार कहाँ से लाऊँ ज़ेहन अफ़्सुर्दा दिल अफ़गार परेशाँ ख़ातिर मैं गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ जब है मुझ से मिरा साया भी गुरेज़ाँ 'अतहर' फिर कोई हमदम-ओ-ग़म-ख़्वार कहाँ से लाऊँ