तुझ से रिश्ता न कोई ख़ास शनासाई है फिर भी इक उम्र से दिल तेरा तमन्नाई है अब के उम्मीद-ए-वफ़ा बाँध रहा हूँ जिस से लोग कहते हैं कि वो शख़्स भी हरजाई है दिल की हर बात से इंकार भी ना-मुम्किन है मान लेने में भी अंदेशा-ए-रुस्वाई है ख़ुद ही वो दर्द बना ख़ुद ही दवा बन बैठा ख़ूब उस शख़्स का अंदाज़-ए-मसीहाई है अब के यूँ टूट के बिखरा हूँ किसी की ख़ातिर मुझ को ख़ुद अपने बिखरने की सदा आई है मानता हूँ तिरी आँखें भी डुबो देती हैं लेकिन अपने भी ख़यालात में गहराई है जा-ब-जा ख़ाक पे टूटे हुए पर बिखरे हैं ख़ूब बुलबुल ने चहकने की सज़ा पाई है सुन के मेरी वो जवाँ-मर्ग का बोले 'शाहिद' क्या वो शाइ'र जो मिरे नाम का सौदाई है