तुझे बदनाम करने पर तुली है गली हर राह-रौ को टोकती है मिरा क़िस्सा मगर तुझ से तही से तिरी बातों में क्या शाइस्तगी है सुकूत-ए-दश्त बे-ख़्वाबी में पहरों सदा-ए-बरबत-ए-शब गूँजती है वहीं तक है खंडर की आख़िरी हद जहाँ तक चाँदनी फैली हुई है मिरी तख़्ईल के अफ़्सुर्दा लब पर वो अपने होंट रख कर सो गई है