तुझे कब पुकारा नहीं जा रहा फ़िराक़ अब सहारा नहीं जा रहा अजब बे-कली है पस-ए-इश्क़ भी ये लम्हा गुज़ारा नहीं जा रहा तहय्युर-ज़दा इक जहाँ है मगर तुझी तक इशारा नहीं जा रहा सर-ए-शौक़ मंज़िल है वो पेश-ओ-पस थकन को उतारा नहीं जा रहा तग़य्युर का इदराक होते हुए नया रूप धारा नहीं जा रहा नहीं दूर तक, जीत का शाइबा मगर हम से हारा नहीं जा रहा