तुझ को लगता है 'आरज़ी दुख है उस के चेहरे पे दाइमी दुख है तीरगी से तो उस को रग़बत है उस की आँखों की रौशनी दुख है बे-ठिकाना रहा है बरसों से इक मुसाफ़िर की बे-घरी दुख है इक समुंदर है जो कि चाहत का उस के जज़्बों की तिश्नगी दुख है कोई सुख भी मिला न जीवन से वास्ते उस के ज़िंदगी दुख है जाँ-कनी भी 'अज़ाब है जिस पर उस से कह दो ये आख़िरी दुख है मार कर छाँव में नहीं डाला हाए अपनों की बे-हिसी दुख है