टुक देख लें चमन को चलो लाला-ज़ार तक क्या जाने फिर जिएँ न जिएँ हम बहार तक क़िस्मत ने दूर ऐसा ही फेंका हमें कि हम फिर जीते-जी पहुँच न सके अपने यार तक ले जाऊँ अब मैं याँ से कहाँ अपना आशियाँ दुश्मन है इस चमन में मिरा ख़ार ख़ार तक दस्त-ए-सितम दराज़ किया जब जुनून ने छोड़ा न मेरे पास गरेबाँ का तार तक फिर भी टुक इतना उस को तू कह दीजियो सबा जावे अगर हमारे तग़ाफ़ुल-शिआर तक जीने की सूरत उस की ठहरती है कोई दम इस वक़्त में भी पहुँचो जो उस बे-क़रार तक कह इस ज़मीं में एक ग़ज़ल और भी 'हसन' है तेरी तब्अ कहने पर अब तो हज़ार तक