तुम गए साथ उजालों का भी झूटा ठहरा रोज़-ओ-शब अपना मुक़द्दर ही अँधेरा ठहरा याद करते नहीं इतना तो दिल-ए-ख़ाना-ख़राब भूला-भटका कोई दो रोज़ अगर आ ठहरा कोई इल्ज़ाम नसीम-ए-सहरी पर न गया फूल हँसने पे ख़तावार अकेला ठहरा पत्तियाँ रह गईं बू ले उड़ी आवारा सबा क़ाफ़िला मौज-ए-बहाराँ का बस इतना ठहरा रोज़ नज़रों से गुज़रते हैं हज़ारों चेहरे सामने दिल के मगर एक ही चेहरा ठहरा वक़्त भी सई-ए-मदावा-ए-अलम कर न सका जब से तुम बिछड़े हो ख़ुद वक़्त है ठहरा ठहरा दिल है वो मोम मिला है जिसे शम्ओं' का गुदाज़ अब कोई देखे न देखे यूँही जलना ठहरा तुम ने जो शम्अ' जलाई थी न बुझने पाए अब तो ले-दे के यही काम हमारा ठहरा गुनगुना लेंगे ग़ज़ल आज 'वहीद'-अख़्तर की नाम लेना ही जो दर-पर्दा तुम्हारा ठहरा