तुम हमें एक दिन दश्त में छोड़ कर चल दिए थे तुम्हें क्या ख़बर या अख़ी कितने मौसम लगे हैं हमारे बदन पर निकलने में ये बाल-ओ-पर या अख़ी शब-गज़ीदा दयारों के नाक़ा-सवारों में महताब-चेहरा तुम्हारा न था ख़ाक में मिल गए राह तकते हुए सब ख़मीदा कमर बाम-ओ-दर या अख़ी जंग का फ़ैसला हो चुका है तो फिर मेरे दिल की कमीं-गाह में कौन है इक शक़ी काटता है तनाबें मिरे ख़ेमा-ए-ख़्वाब की रात भर या अख़ी ये भी अच्छा हुआ तुम इस आशोब से अपने सरसब्ज़ बाज़ू बचा ले गए यूँ भी कू-ए-ज़ियाँ में लगाना ही था हम को अपने लहू का शजर या अख़ी नहर इस शहर की भी बहुत मेहरबाँ है मगर अपना रहवार मत रोकना हिजरतों के मुक़द्दर में बाक़ी नहीं अब कोई क़र्या-ए-मो'तबर या अख़ी ज़र्द पत्तों के ठंडे बदन अपने हाथों पे ले कर हवा ने शजर से कहा अगले मौसम में तुझ पर नए बर्ग-ओ-बार आएँगे तब तलक सब्र कर या अख़ी